इसे रोशनी दे, उसे रोशनी दे
सभी को उजालों-भरी ज़िंदगी दे
सिसकते हुए होंठ पथरा गए हैं
इन्हें कहकहे दे, इन्हें रागिनी दे
नहीं जिनमें साहस उन्हें यात्रा में
न किश्ती सँभाले, न रस्ता नदी दे
मेरे रहते प्यासा न रह जाए कोई
मुझे दिल दिया है तो दरियादिली दे
मुझे मेरे मालिक! नहीं चाहिए कुछ
ज़मीं को मुहब्बत-भरा आदमी दे
डा. गिरिराजशरण अग्रवाल
गुरुवार, 13 नवंबर 2008
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8 टिप्पणियां:
Aapke jaise lekhak ko blogpe dekh aur padh behad khushee huee ! Mai aapke lekhan pe tippanee deneke qabil apneaapko nahee samajhtee, phirbhee kahungi,"Mere rehte..."se lekar
".....aadmee de", ye panktiya seedhe gehrayeeme utar gayeen...in khayalatme aapke saath hun...kitnee khoobsoorat tamanna hai, dua hai !
Aap agar mere blogpe aayen to mujhe khusheeke saath, saath, kritadnyatabhee hogee !
आदरणीय डॉक्टर साहब,
मैं तो आपकी शरण में आ गया हूं, आपकी ग़ज़लों ने मुझे बेहद प्रभावित किया है। औरों की और जाने
prakashbadal.blogspot.com
मुझे मेरे मालिक! नहीं चाहिए कुछ
ज़मीं को मुहब्बत-भरा आदमी दे
लाज़बाब बधाई और स्वागत मेरे ब्लॉग पर पधारे
gajal, ek khubsurat ahsas,wah!
narayan narayan
waah! ब्लोगिंग जगत में आपका स्वागत है. खूब लिखें, खूब पढ़ें, स्वच्छ समाज का रूप धरें, बुराई को मिटायें, अच्छाई जगत को सिखाएं...खूब लिखें-लिखायें...
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आप मेरे ब्लॉग पर सादर आमंत्रित हैं.
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अमित के. सागर
(उल्टा तीर)
मुझे मेरे मालिक! नहीं चाहिए कुछ
ज़मीं को मुहब्बत-भरा आदमी दे
बहुत सुंदर है आप का शब्द संसार
नहीं जिनमें साहस उन्हें यात्रा में
न किश्ती सँभाले,न रस्ता नदी दे...
प्रेरणादायी शेर है। काफी दिनों बाद एक अच्छी गजल पढ़ने को मिली है। साधुवाद....
शमा जी
बहुत बदला हुआ समय है, आदमियत के अस्तित्व पर ख़तरे के बादल मंडरा रहे हैं। अबतो-
हमने अपनों के लिए भी मूँद रक्खा है मकाँ
पेड़ की बाहें खुली हैं हर परिंदे के लिए
डा गिरिराजशरण अग्रवाल
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