सोचता हूँ आदमी तब आदमी होने लगे
दर्द जब इक-दूसरे का ज़िन्दगी होने लगे
प्यार की सौग़ात बाँटें, आओ तुम भी मेरे साथ
लोग अब इक-दूसरे से अजनबी होने लगे
द्वेष की कालिख से है दुनिया में मन की कालिख
धुएँ के बादल छटें तो रोशनी होने लगे
सोच लेना आदमीयत का पतन होने को है
दर्द में हमदर्दियों की जब कमी होने लगे
काश! यह बीमार दुनिया वह भी दिन देखे कि जब
उम्र-भर के दुश्मनों में दोस्ती होने लगे
डा गिरिराजशरण अग्रवाल
शुक्रवार, 14 नवंबर 2008
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1 टिप्पणी:
बहुत अच्छे-अच्छे अशआर पढ़ने को मिले , आपकी ग़ज़ले लुत्फ़ देतीं हैं . जतिन्दर परवाज़
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