मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

दीप जलाना न छोड़ना

रोकेंगे हादिसे मगर चलना न छोड़ना
हाथों से तुम उम्मीद का रिश्ता न छोड़ना

झेली बहुत है अब के बरस जेठ की तपन
बादल, किसी के खेत को प्यासा न छोड़ना

ले जाएगी उड़ा के हवा धुंध का पहाड़
शिकवे भी हों तो मिलना-मिलाना न छोड़ना

तुम फूल हो, सुगंध उड़ाते रहो युँही
औरों की तरह अपना रवैया न छोड़ना

तुम ही नहीं हो, राह में कुछ दूसरे भी हैं
आगे बढ़ो तो दीप जलाना न छोड़ना

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

गुरुवार, 20 नवंबर 2008

ग़ज़ल : यादगारें छोड़ते जाओ

रोशनी बनकर पिघलता है उजाले के लिए
शम्अ जल जाती है घर को जगमगाने के लिए

हमने अपनों के लिए भी मूँद रक्खा है मकाँ
पेड़ की बाहें खुली हैं हर परिंदे के लिए

प्रेम हो, अपनत्व हो, सहयोग हो, सेवा भी हो
सिर्फ़ पैसा ही नहीं, हर बार जीने के लिए

जितने भी काँटे हैं पग-पग में वे चुनते जाइए
रास्ते को साफ़ रखना आने वाले के लिए

एक दिन जाना ही है, जाने से पहले दोस्तो
यादगारें छोड़ते जाओ, ज़माने के लिए

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

सोमवार, 17 नवंबर 2008

दिल में हो विश्वास

दिल में हो विश्वास तो ख़तरा नहीं मंझधार का
है भँवर तो दोस्तो! देखा हुआ सौ बार का

हम अगर समझे हैं तो कहती है कलाई की घड़ी
साथ देना है सभी को वक़्त की रफ्तार का

प्रेम की बाहों में है सिमटा हुआ सारा जगत्
जो नहीं पूजाघरों का, वो है मज़हब प्यार का

ख़ुश्क जंगल को भिगोदें तुम अगर सहयोग दो
आओ अब मिल-जुल के मोड़ें रुख़ नदी की धार का

आदमी सचमुच वही है, जिसका जीवन-सार हो
दर्द भी सारे जहां का, ध्यान भी घर-बार का

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

रविवार, 16 नवंबर 2008

ग़ज़ल : आदमी हो जाइए

कल का युग हो जाइए, अगली सदी हो जाइए
बात यह सबसे बड़ी है, आदमी हो जाइए

आपको जीवन में क्या होना है यह मत सोचिए
दुख में डूबे आदमी की ज़िंदगी हो जाइए

हो सके तो रास्ते की इस अँधेरी रात में
रोशनी को ढूँढि़ए मत, रोशनी हो जाइए

रेत के तूफ़ाँ उठाती आ रही हैं आंधियाँ
हर मरुस्थल के लिए बहती नदी हो जाइए

जागते लम्हों में कीजे ज़िंदगी का सामना
नींद में मासूम बच्चे की हंसी हो जाइए

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

दिल में हो विश्वास तो

दिल में हो विश्वास तो ख़तरा नहीं मंझधार का
है भँवर तो दोस्तो! देखा हुआ सौ बार का

हम अगर समझे हैं तो कहती है कलाई की घड़ी
साथ देना है सभी को वक्त की रफ़्तार का

प्रेम की बाहों में है सिमटा हुआ सारा जगत्
जो नहीं पूजाघरों का, वो है मज़हब प्यार का

ख़ुश्क जंगल को भिगोदें तुम अगर सहयोग दो
आओ अब मिल-जुल के मोड़ें रुख़ नदी की धार का

आदमी सचमुच वही है, जिसका जीवन-सार हो
दर्द भी सारे जहां का, ध्यान भी घर-बार का

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

शनिवार, 15 नवंबर 2008

मन के दरवाज़े सजा

जग नहीं सुंदर तो अपनी सोच को पहले सजा
प्यार की झालर से अपने मन के दरवाज़े सजा

जानना चाहे अगर जीवन की सजधज का रहस्य
दिल में आशाएँ सजा, एहसास में सपने सजा

आने वाले, कुछ-न-कुछ तो हौसला लेते रहें
रक्त से तलुओं के यह काँटों-भरे रस्ते सजा

सारी बस्ती गर नहीं महकी तो क्या तेरी महक
अपने घर की मेज़ पर तू लाख गुल-बूटे सजा

लोकसेवा नाम है जिसका वो है सौदागरी
आंख में वादे सजा, होठों में कुछ नारे सज़ा

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

प्यार की सौग़ात बाँटें

सोचता हूँ आदमी तब आदमी होने लगे
दर्द जब इक-दूसरे का ज़िन्दगी होने लगे

प्यार की सौग़ात बाँटें, आओ तुम भी मेरे साथ
लोग अब इक-दूसरे से अजनबी होने लगे

द्वेष की कालिख से है दुनिया में मन की कालिख
धुएँ के बादल छटें तो रोशनी होने लगे

सोच लेना आदमीयत का पतन होने को है
दर्द में हमदर्दियों की जब कमी होने लगे

काश! यह बीमार दुनिया वह भी दिन देखे कि जब
उम्र-भर के दुश्मनों में दोस्ती होने लगे

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

गुरुवार, 13 नवंबर 2008

सभी को उजालों-भरी ज़िंदगी दे

इसे रोशनी दे, उसे रोशनी दे
सभी को उजालों-भरी ज़िंदगी दे

सिसकते हुए होंठ पथरा गए हैं
इन्हें कहकहे दे, इन्हें रागिनी दे

नहीं जिनमें साहस उन्हें यात्रा में
न किश्ती सँभाले, न रस्ता नदी दे

मेरे रहते प्यासा न रह जाए कोई
मुझे दिल दिया है तो दरियादिली दे

मुझे मेरे मालिक! नहीं चाहिए कुछ
ज़मीं को मुहब्बत-भरा आदमी दे

डा. गिरिराजशरण अग्रवाल

बुधवार, 12 नवंबर 2008

चाँदनी बनकर जियो

धूप बनकर फैल जाओ, चाँदनी बनकर जियो
घुप अँधेरा छा न जाए, रोशनी बनकर जियो

फूल बन-बन कर बिखरती है, तपन देती नहीं
आग बनकर ख़ाक जीना, फुलझड़ी बनकर जियो

आज तक जीते रहे हो, अपनी-अपनी ज़िंदगी
दोस्तो! इक-दूसरे की ज़िंदगी बनकर जियो

ओस की बूँदों में ढलकर तुम अगर बिखरे तो क्या
दूर तक बहती हुई शीतल नदी बनकर जियो

आदमी के रूप में पैदा हुए तो क्या हुआ?
बात तो तब है कि सचमुच आदमी बनकर जियो

डा. गिरिराजशरण अग्रवाल