धूप बनकर फैल जाओ, चाँदनी बनकर जियो
घुप अँधेरा छा न जाए, रोशनी बनकर जियो
फूल बन-बन कर बिखरती है, तपन देती नहीं
आग बनकर ख़ाक जीना, फुलझड़ी बनकर जियो
आज तक जीते रहे हो, अपनी-अपनी ज़िंदगी
दोस्तो! इक-दूसरे की ज़िंदगी बनकर जियो
ओस की बूँदों में ढलकर तुम अगर बिखरे तो क्या
दूर तक बहती हुई शीतल नदी बनकर जियो
आदमी के रूप में पैदा हुए तो क्या हुआ?
बात तो तब है कि सचमुच आदमी बनकर जियो
डा. गिरिराजशरण अग्रवाल
बुधवार, 12 नवंबर 2008
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1 टिप्पणी:
आदरणीय डॉ0 साहब,
बढ़िया गज़ल, आशा है और गज़लें पढ़ने को मिलेंगी।
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